सिरमौर जिला का गिरिपार जनजातीय क्षेत्र के दर्जे पाने के लिए वर्षो से तरस रहा है। गिरीपार क्षेत्र को जनजातीय दर्जे की माग को लेकर विकास खंड संगड़ाह की 41 में से 30 पंचायतों के प्रधानों ने कई बार प्रधानमंत्री को भी पत्र भेजे हैं। वहीं बीडीसी संगड़ाह के अध्यक्ष व सदस्यों की ओर से भी इस मुद्दे पर प्रस्ताव तैयार किए जा चुके हैं। यही नहीं सिरमौर जिला के गिरिपार के अंतर्गत आने वाली सभी 127 पंचायतों ने भी क्षेत्र को जनजातीय दर्जे की माग को लेकर प्रधानमंत्री व केंद्रीय मंत्री को पत्र भेजे हैं।
हालांकि जौनसार बाबर को जनजातीय क्षेत्र का दर्जा मिल गया है जबकि श्रीरेणुकाजी, शिलाई व राजगढ़ के पिछडे़ क्षेत्र के लोग वर्षो से इस दर्जे की माग कर रहे हैं। मगर यह मामला अभी भी खटाई में है। जिला सिरमौर व जौनसार बाबर का इतिहास, रीति-रिवाज, संस्कृति व देवी देवता एक ही है। जौनसार बाबर के ग्रामीणों के दिन फिर गए हैं, जबकि गिरिपार क्षेत्र के हाटी समुदाय के अच्छे दिन अभी नहीं आए है। 1967 में गिरिपार के साथ लगते तत्कालीन यूपी के जौनसार क्षेत्र को जनजातीय दर्जा मिलने के बाद पांच दशक से इस क्षेत्र को जनजातीय दर्जे की माग पर हाटी समिति के आह्वान पर पंचायत प्रतिनिधि उक्त पत्र भेज रहे हैं। हाटी समिति की संगड़ाह इकाई के पदाधिकारी आरके शर्मा, राजेंद्र व हीरा पाल आदि का कहना है कि गाव-गाव में जाकर खुमली की जा रही है। इसमें लोगों को जनजातीय क्षेत्र बनने के बाद उन्हें मिलने वाली सुविधाओं के बारे में बताया जा रहा है। साथ ही उन्हें जनजातीय क्षेत्र को लेकर जागरूक भी किया जा रहा है।
रियासत का हिस्सा था जौनसार बाबर : 1195 से 1815 तक जौनसार बाबर सिरमौर रियासत का हिस्सा रहा है। सिरमौर की राजधानी 1279 से 1621 तक उत्तराखंड के कालसी में रही। 1621 में राजा धर्म प्रकाश इस राजधानी को नाहन ले गए थे। जौनसार बाबर के लोगों का कुल ईष्ट भगवान परशुराम ही है, जबकि कुल देवी माता बाला सुंदरी त्रिलोकपुर वाली है। यही कारण है श्रीरेणुकाजी मेले में अधिकतर लोग जौनसार बाबर के ही आते हैं। जो आज भी प्राचीन संस्कृति को समेटे हुए हैं।
यदि कहा जाय कि गिरीपार को जनजातीय क्षेत्र घोषित करने में सबसे बड़ा कारण, यही सामने आता है कि जिस क्षेत्र में कोई बाजार या दुकान ही न हो वह जनजातीय न होगा तो क्या होगा। गिरीपार क्षेत्र में बाजार तो क्या कोई दुकान भी नहीं हुआ करती थी, यही कारण था कि यहां के ग्रामीण गिरी नदी को पार करके निकट के बाजार या हाट में जाकर खरीदारी करते थे।
एक ओर जहां हाट या बाजार इतनी दूर हुआ करते थे कि आने-जाने के लिए कई दिनों की आवश्यकता होती थी, वहीं दूसरी ओर रास्ता इतना लंबा और जंगली हुआ करता था कि अकेले जाने में जानवरों या लुटेरों का खतरा बना रहता था। इसी मजबूरी के चलते, गिरीपार के ग्रामीण, समूहों में जा कर गुड़, नमक शीरा आदि निकट के बाजारों से खरीद कर लाते थे। इसी तरह के समूहों में जाने वाले ग्रामीणों को ‘‘हाटी’’ कहा जाता था।
अब यदि आज के संदर्भ में निर्धारित लक्षणों को लिया जाए तो शतप्रतिशत परंपराएं वही मिलेंगी जो 1978 में थीं या उसके पहले थीं, जिसके तहत इस क्षेत्र को जनजातीय श्रेणी में लाने की मांग हर हाल में पूरी हो जाने की संभावना प्रबल हो जाती है। लोकूर कमेटी द्वारा जनजातीय क्षेत्र घोषित करने के लिए पांच लक्षणों को निर्धारित किया गया था। उस लिहाज से भी गिरीपार क्षेत्र, पूरी तरह से जनजातीय क्षेत्र की श्रेणी में आता है। हालांकि यह मामला 1979 से ही केंद्र सरकार के जनजातीय मंत्रालय में विचाराधीन है परन्तु कई कारणों से यह जनजातीय क्षेत्र घोषित करने में लटकता रहा है।
इस मुहिम को सिरे चढ़ाने का अंतिम प्रयास 2013 में हुआ था जब लोकूर कमेटी के मापदंड़ों के अनुसार, जनजातीय शोध एवं अध्ययन संस्थान शिमला द्वारा गिरीपार का सर्वे किया गया था। उस पिपोर्ट में कमी पाई जाने से कुछ ही महीनों पहले दोबारा, आधी अधूरी रिपोर्ट बना कर भेजी गई जो क्षेत्र को देा हिस्सों बांट गई, जिससे यह रिपोर्ट, सकारात्मकता के बदले हाटियों के लिए नकारात्मक ही साबित हुई। यदि निर्धारित पांच मापदंडों को आधार मान लिया जाए तो इस मांग को अविलंब पूर्ण हो जाना चाहिए।
क्या हैं ये लोकूर कमेटी द्वारा निर्धारित पांच लक्षण….
1. आदिम परंपराएं : सबसे पहली परंपरा जो सदियों से चली आ रही है, वह है दुधारू पशुओं का पालना। आज भी हर घर में पशु पाले जाते हैं और दूध घी का सेवन करते हैं। पशुओं को पालने की प्रक्रिया आज भी वही है, जो परंपरागत चली आ रही है।
इसी प्रकार परंपरागत तरीके से काते गए, बुने गए और सिले गए ऊन के कपड़े पहनना, जानवरों के नाम से ही नृत्य शैलियां अपनाना, सदियों से चले आ रहे जनजातीय त्योहारों का मनाना, मांस खाना, शुद्ध घी के पकवान बना कर खाना, घी और शक्कर, घी और सिड़कू, आटा और घी, पटंडे-शक्कर-दाल और घी, शहद और घी, जो लोग मांस नहीं खाते उनके लिए आटे के बकरे और घी, भाभर का साग और ताजा मक्खन, लुश्के, चिल्टे, श्चावले, घेघरी, कजेवटी, कांजण, इत्यादि कई परंपरागत खाने शामिल हैं।
यह भी जनजातीय लक्षणों में से एक है कि त्योहारों के अलावा हर संक्रांति और 20 गते भी इन्हीं पकवानों को बना कर ही खाया जाता है। क्षेत्र में सदियों से चली आ रही नाटियां, हारें, बूडे़ झूरी, प्वाड़ा इत्यादि आज भी उसी परंपरागत तरीके से गाई जाती हैं और स्वांगटी गी, निंगी-नाटी, माला में नाचा जाता है।
शादी ब्याह में स्त्री-हरण करके ले जाना, रीत चुकाना ( सरकार ने बंद कर दी), शादी ब्याह में परंपरागत तरीका जैसे दोयड़े, शिठणें, पत्तल बांधना, मजाक, हल लगाना, हैला अथवा बवारे करना, ठोडा खेलना, खेल (दल) शाठड़-पांशड़ में बंटे होना, देवी-देवता, भूत-प्रेत का मानना, कुल देवता, ग्रामीण देवता, पारिवारिक देव, जंतर-मंतर, जादू-टोना, मशाण, डॉग, खांद, नजर, दैविक धाराणायंे-मान्यताएं-वर्जनाएं, मौसमी भविष्य-वाणियां, परंपरागत तरीके से रिश्तेदारियां, बलि प्रथा, देव वाणी का मानना, यानि सैंकड़ों ऐसे परंपरागत लक्षण हैं जो आज भी उसी तरह मान्य हैं जो कभी हमारे हाटी पूर्वज में थे।
- भिन्न संस्कृति :हाटी संस्कृति के बारे में ऊपर की पंक्तियों में भी लिखा गया है। कुछ रिवाजों को छोड़ कर कोई भी परंपरा ऐसी नहीं है जो दूसरों की संस्कृति से मेल खाती हो। हां वो दूसरी बात है कि कुछ परंपराएं हाटी क्षेत्र से दूसरे क्षेत्रों में चली गई हों। देवी देवता की पूजा पद्धतिं में अंतर, देव वााणी कहने वाले (घणिता) में अंतर, खान-पान में अंतर, रहन-सहन में अंतर, रीति-रिवाजों में अंतर, बोली में अंतर, कृषि यंत्रों में अंतर, पहरावे में अंतर यानि हर प्रकार से हाटियों की संस्कृति आसपास के क्षेत्रों से बिल्कुल भिन्न चली आ रही है।
- भौगोलिक पृथकताःगिरीपार क्षेत्र को दो ओर से गिरी नदी, एक ओर से टौंस नदी और एक तरफ से चूड़धार के जंगल, वर्ष में अधिकतर समय, बाकी जिलों और मुख्यालय नाहन से अलग-थलग कर देते हैं। अब जरूर कुछ पुल बन गए हैं परन्तु पूर्वकाल में नदी पार जाने का कोई रास्ता नहीं होता था। इस बारे में एक ऐतिहासिक तथ्य लिए एक घटना भी शामिल की जा सकती है।
सिरमौर रियासत के महाराजा राजेंद्रप्रकाश के पिता अमरप्रकाश के स्वर्गवास के बाद, उनकी महारानी मदालसा देवी ने, रामगोपाल मंत्री के माध्यम से गिरी नदी पर पुल बनाने की योजना बनाई थी जो सिरे नहीं चढ़ पाई थी और प्रजा से ऐकत्र किया पैसा हड़प लिया था। पूरा गिरीपार क्षेत्र जंगली और कठिन क्षेत्र होने से यह जनजातीय बना रहा जो आाजादी के बाद भी अपनी जनजातीय संस्कृति को ज्यों का त्यों अपनाए हुए हैं।
जी हां, यह क्षेत्र जहां गिरीपार की विशेषता लिए है वहीं इस क्षेत्र की उंचाई तीन हजार से आरंभ हो कर (12000) बारह हजार फुट लिए हुए है। पूरे जिला में शायद ही इतने जंगल हों जितने गिरीपार क्षेत्र में मौजूद हैं जिससे जनजातीय क्षेत्र होने की भी पुष्टि होती है। यहां के जंगलों में लगभग हर प्रकार की जड़ी बूटी पाई जाती है जिससे स्थानीय लोग अपना ईलाज परंपरागत तरीके से स्वयं करते हैं। यानि कुल मिला कर भौगोलिक रूप से यह क्षेत्र पूरी तरह से अलग थलग पड़ा हुआ है।
- अन्य समुदायों से मेल जोल बढ़ाने में असहजता :इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि यहां का (अपवाद को छोड़ कर) व्यक्ति कभी काम करने के लिए क्षेत्र छोड़ कर नहीं गया। अब आजादी के बाद कुछ लोग शिमला में जा कर स्वतंत्र रूप से भारवाहक तो बने हैं परन्तु किसी के घर में जा कर नौकरी बहुत कम करते हैं जो यही वास्तविकता दिखाता है कि हाटी लोग अभी भी अन्य लोगों से मेल जोल बढ़ाने में संकोच करते हैं।किसी बड़े आदमी से मिलना हो तो अकेले नहीं जा सकते बल्कि किसी खास व्यक्ति के माध्यम से मिलते हैं। जहां पर भी हाटी लोग घर छोड़ कर कहीं अन्य बस गए हैं वहां पर भी अपने ही क्षेत्र के लोगों की कालोनी स्थापित करते हैं ताकि अपने जैसे लोग ही आसपास मिलते रहें।
- सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन :40 वर्ष पहले जब जनजातीय क्षेत्र घोषित करने की मांग की गई थी और आज जब नए युग में प्रवेश कर रहे हैं, आर्थिक रूप से कुछ तो भिन्नता हो ही जाती है। फिर भी यदि बैंको में जा कर आंकड़ों को देखा जाए तो हर आदमी सरकारी कर्जे में डूबा हुआ मिलेगा। इसे आर्थिक पिछड़ापन ही कहा जाएगा कि अपनी जमीनें गिरवी रख कर लोन लेते रहे हैं। सामाजिक तौर पर भी इन्हें पहाडि़ए ही कहाजाताहै। ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो हर हाल में गिरीपार का क्षेत्र जनजातीय क्षेत्र घोषित करने के लिए सभी मापदंड़ों पर खरा उतरता है।