हिमाचल प्रदेश के सिरमौर ज़िला के कोलर गाँव मे 28 अप्रैल 1977 को जन्मे कवि प्रदीप सैनी की पाँचवी तक की प्रारंभिक शिक्षा कोलर गाँव में ही हुई। 1987 में नए नए खुले जवाहर नवोदय विद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी और सफल रहने पर आगे की पढ़ाई बाहरवीं तक जवाहर नवोदय विद्यालय नाहन से की। नवोदय के लिए चयन होना जीवन यात्रा का एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा। नवोदय में पढ़ाई की दौरान पेंटिंग, क्विज, भाषण प्रतियोगिताओं में बढ़चढ़ कर भाग लिया तो उनमें एक नए तरह के आत्मविश्वास ने जन्म लिया।
इसी स्कूल में हिंदी के अध्यापक श्री त्रिलोकेश नारायण त्रिपाठी,जो बी एच यू के छात्र रहे थे, ने प्रदीप सैनी के भीतर छिपे कवि को पहचाना । त्रिपाठी जी की संगत में प्रदीप का भाषा के प्रति नज़रिया ही बदल गया । कविता लेखन के अंकुर फूटने लगे । शुरुआत छोटी छोटी तुकबंदियों से हुई । हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से विधि स्नातक की डिग्री के दौरान सही मायने में कविताएँ लिखना शुरू किया। वर्ष 2000 से पावटा साहिब और नाहन की अदालतों में वकालत कर रहे प्रदीप सैनी अपने आप को हिंदी की दुनिया में एक आउटसाइडर ही मानते रहे । प्रदीप सैनी पिछले बीस वर्षो से कविताएं लिख रहे है । कुछ पत्र पत्रिकाओं में उनकी कविताएं प्रकाशित भी हुई और और आकाशवाणी ,दूरदर्शन शिमला केंद्र से भी उनकी कविताओं का प्रसारण हो चुका है । कवि आलोचक नीलकमल के संपादन में आई काव्य पुस्तिका “संभावना के स्वर” में तीन अन्य युवा कवियों के साथ प्रदीप सैनी की कविताएँ भी संकलित हो चुकी है ।
इसके बावजूद वे मानते है कि मैं हमेशा से अपनी कविताओं को लेकर संशय से भरा रहा हूँ और इस वजह से खुद को कवि मानने से भी बचता रहा हॅू । हिमाचल के बाहर की बड़ी पत्रिकाओं को कविताएँ भेजने की हिम्मत कभी जुटा नहीं पाया और यही लगता रहा कि अभी मुझे उनके स्तर का लिखने में समय लगेगा। लेकिन बहुत से मित्र हैं जिन्हें मेरी कविताओं पर भरोसा रहा है और उनके उकसावे पर अपनी कुल जमा पूँजी जब कवि निरंजन क्षोत्रिय जी को भेजी तब भी उम्मीद नहीं थी कि कविताएँ समावर्तन पत्रिका ( फरवरी 2020 अंक ) में रेखांकित कालम के लिए पास हो जाएंगी। उनकी कविताओं पर कवि निरंजन क्षोत्रिय द्वारा समावर्तन पत्रिका में रेखांकित कालम में की गयी टिप्पणी से प्रदीप सैनी प्रोत्साहित हुए और उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने संशय से बाहर आयेगें और उनका पहला कविता संग्रह जल्दी ही हमारे हाथों में होगा ।
लॉक डाऊन के दिनों को कैसे बिता रहे है पूछे जाने पर प्रदीप सैनी बताते है कि लॉक डाउन में वकालत की भागदौड़ और व्यस्तता से बड़ा आराम मिला। बीस साल में पहली बार इस तरह की छुट्टी मिली जिसे परिवार के साथ रहकर बिता रहा हूँ। इस बीच कुछ किताबें पढ़ी और थोड़ा बहुत लिखना दोबारा शुरू किया। आसपास जो घट रहा है उस पर एक जागरूक नागरिक की तरह तो हमेशा नज़र रहती ही थी मगर इस महामारी में सत्ता ने वंचितों के साथ जैसा विश्वासघात किया है उसने मुझे इस समाज का हिस्सा होने की शर्मिंदगी से भर दिया है। ऐसी बेचैनियों से जूझने में कविता भी एक हथियार है। प्रदीप सैनी उम्मीद करते है कि अब कविता उनसे दूर नहीं जाएगी।
यहां प्रस्तुत है कि कवि प्रदीप सैनी की तीन कविताएं
(1) संवाद जरूरी है दोस्त
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ऊपर के डिब्बे में
रख दिए जाने भर से
साबित तो नहीं होता
तुम ज़्यादा स्वादिष्ट या पौष्टिक हो
यूँ मत इतराओ
हमसे बात करो
सफर में संवाद जरूरी है दोस्त
हमें साथ-साथ एक हाथ
मुँह तक ले जाएगा
दाँतों के बीच
हममें फर्क करना मुश्किल होगा
मैं शायद पहले चबा लिया जाऊँ
या तुम ही निगले जाओ पहले
मत भूलो
अलग-अलग डिब्बों में होने के बावजूद
हम एक ही टिफिन कैरियर में बंद हैं ।
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(2) ख़तरा – कुछ नोट्स
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ख़तरा कैसा भी हो
इतना नया कभी नहीं होता
इतिहास में कि उसका ज़िक्र न मिले
पहचान कर पाना लेकिन
मुश्किल ही होता है हर बार
ख़तरा बहरूपियों कि तरह बदलता है रंगढंग
फिर बाज़ार की हज़ार ख़ामियों के बावजूद
ये बात तो है ही की यहाँ
हर चीज़ कई रंग रूपों में होती है उपलब्ध
इस वक़्त जब ज्यादा जानकार होते हुए
कम समझदार होती जा रही है दुनिया
सबसे जरूरी हो गया है
ख़तरा पहचान लेने का हुनर
यूँ तो कहीं भी मौजूद हो सकता है वह
संभावनाएं कम ही होती हैं वहां
उसके होने की जहाँ
लगाई जाती हैं अटकलें
उस पर नज़र रखने के लिए
वहां गौर से देखना चाहिए
जहाँ से खड़े होकर
बार बार दूसरी तरफ़ इशारा करता है
उसे पहचान लेने का दावा करने वाला विशेषज्ञ
उस आवाज़ में भी हो सकता है शामिल वह
उसके बारे में बड़ी इहतियात से जो
कर रही है दुनिया को आगाह
वह ख़ानाबदोश
लगातार बदलता है डेरा
फ़िलहाल खबर है की उसने अपना रूख़
सबसे पवित्र माने जाने वाले
ठिकानों की और कर लिया है
और सबसे बड़ा ख़तरा
नहीं ढूँढना होता है इधर-उधर
वह हमेशा भीतर ही छुपा होता है
कविता के ज़िक्र बिना
नहीं हो सकती ये बेतरतीब बातें पूरी
कम ख़तरनाक नहीं होती
कविता वह लिखता है जिसे
एक सुरक्षित कवि |
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(3) तुम्हें चूमना
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शब्द कहते हैं जितना
छिपाते हैं उससे अधिक
वे छल के सबसे धारदार हथियार हैं
भाव भंगिमाएं भी
कतई विश्वसनीय नहीं
वे तो छलती आई हैं तब से
पैदा भी जब हुए नहीं थे शब्द
और देह
उसका अपना है दर्शन
व्यापार अपना
गौरखधंधा इतना अज़ब कि
इस भूलभुलैया में क्या मालूम
कोई राह कहीं पहुँचे भी या न पहुँचे
इस सब के बीच
मूक होकर भी
कितना मुखर है तुम्हें चूमना
बता देता है बहुत कुछ
और पारदर्शी इतना
देख सकते हैं हम
एक-दूसरे के भीतर का सच
चूमने में शामिल सिर्फ देह ही नहीं होती |
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साभार राजेन्द्र शर्मा