पझौता गोली कांड दिवस ,11 जून पर विशेष स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा है पझौता आन्दोलन का इतिहास

हिमाचल प्रदेश के इतिहास में  पझौता आन्दोलन  को स्वतंत्रता संग्राम का एक हिस्सा माना जाता है । 11 जून 1943 को महाराजा सिरमौर राजेन्द्र प्रकाश की सेना द्वारा  पझौता आन्दोलन के  निहत्थे लोगों पर राजगढ़ के सरोट टिले से 1700 राऊंड गोलियां चलाई गई थी जिसमें कमना राम नामक व्यक्ति गोली लगने से  मौके पर ही शहीद हुए थे जबकि तुलसी राम, जाती राम, कमालचंद, हेत राम, सही राम, चेत सिंह घायल हो गए थे।

सिरमौर जिला के राजगढ़ तहसील का उतरी-पूर्व भाग पझौता घाटी के नाम से जाना जाता है । वैद्य सूरत सिंह के नेत्त्व में  इस क्षेत्र के जांबाज एवं वीर सपूतों द्वारा सन 1943 में अपने अधिकार के लिए महाराजा सिरमौर के विरूद्ध आन्दोलन करके रियासती सरकार के दांत खटटे कर दिए थे । इसी दौरान महात्मा गांधी द्वारा सन 1942 में देश में भारत छोड़ों आन्दोलन आरंभ किया गया था जिस कारण  इस आन्दोलन को देश के स्वतंत्र होने के उपरांत   भारत छोड़ों आन्दोलन  की एक कड़ी माना गया था । जिस कारण  पझौता आन्दोलन से जुड़े लोगो को प्रदेश सरकार द्वारा स्वतंत्रता सैनानियों का दर्जा दिया गया था ।

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विभिन्न सूत्रों से एकत्रित की गई जानकारी के अनुसार महाराजा सिरमौर राजेन्द्र प्रकाश की दमनकारी एवं तानाशाही  नीतियों के कारण लोगों में रियासती सरकार के प्रति काफी आक्रोश था ।  महाराजा सिरमौर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार की सेना और रसद प्रदान करके मदद कर रहे थे और जिस कारण रियासती सरकार द्वारा लोगों पर जबरन घराट, रीत-विवाह इत्यादि अनुचित कर लगाने के अतिरिक्त  सेना में जबरन भर्ती होने के लिए फरमान जारी किए गए । रियासती सरकार के तानाशाही रवैयै से तंग आकर पझौता घाटी के लोग अक्तूबर 1942 में टपरोली नामक गांव में एकत्रित हुए और ” पझौता किसान सभा ”का गठन किया गया था जबकि आन्दोलन की पूरी कमान एवं नियंत्रण सभा के सचिव वैद्य सूरत सिंह के हाथ में थी । पझौता किसान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव को  महाराजा सिरमौर को भेजा गया जिसमें बेगार प्रथा को बंद करने , जबरन सैनिक भर्ती ,अनावश्यक कर लगाने, दस मन  से अधिक अनाज सरकारी गोदामो में जमा करना इत्यादि शामिल था । महाराजा सिरमौर राजेन्द्र प्रकाश द्वारा उनकी मांगों पर कोई गौर नहीं की गई । बताते हैं कि राजा के चाटूकारों द्वारा समझौता नहीं होने दिया जिस कारण  पझौता के लोगों द्वारा बगावत कर दी गई और उस छोटी सी चिंगारी ने बाद में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया।

पझौता आन्दोलन के तत्कालिक कारण आलू का रेट उचित न दिया जाना था । बताते है कि  रियासती सरकार द्वारा सहकारी सभा में  आलू का रेट तीन रूपये प्रति मन निर्धारित किया गया जबकि खुले बाजार में आलू का रेट 16 रूपये प्रतिमन था चूंकि आलू की फसल इस क्षेत्र के लोगों की आय का एक मात्र साधन थी। जिस कारण लोगों में रियासती सरकार के प्रति काफी आक्रोश पनम रहा था और वैद्य सूरत सिंह द्वारा अपनी टीम के साथ गांव गांव जाकर लोगों को इस आन्दोलन में अपना सहयोग देने बारे अपील की गई और इस आन्दोलन की चिंगारी पूरे पझौता क्षेत्र में फैल गई और लोग रियासती सरकार के विरूद्ध विद्रोह करने पर उतर गए ।

आन्दोलन के लिए गठित समिति का पहला कदम था राजा द्वारा यहां बनाए गए जेलदारों व नंबरदारों द्वारा अपने पद से त्याग पत्र देना। इसी दौरान जिला सिरमौर में न्यायाधीश के पद से डॉ0 वाईएस परमार ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। जैसे ही राजा सिरमौर को इस बात की भनक लगी, उन्होंने नाहन से 50 सैनिकों के दल को इस आंदोलन को कुचलने व समिति के सदस्य को पकडने के लिए क्षेत्र में भेजा। इस दल का नेतृत्व डीएसपी जगत सिंह कर रहे थे। उन्होंने क्षेत्र का दौरा करके नाहन जाकर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। बताते हैं कि इसी दौरान राजा पटियाला चूड़धार की यात्रा पझौता क्षेत्र के शाया में रूके थे। उन्होंने इस आंदोलन का जायजा लिया और राजा सिरमौर को एक पत्र लिख कर इस आंदोलन का समाप्त करने के लिए उचित कदम उठाने का आग्रह किया  गया । परिणामस्वरुप राजा ने इस आंदोलन को शांत करने व इनसें समझौता करने के लिए रेणुका के बूटी नाथ नारायण दत्त-दुर्गा दत्त आदि को पझौता क्षेत्र में भेजा। मगर समझौता कराने में यह असफल रहे। उनके बाद राजा ने आन्दोलन समिति के सदस्यों को समझौता करने के लिए नाहन बुलाया। मगर आंदोलनकारियों ने राजा के आग्रह को ठुकरा दिया।

अन्ततः महाराजा सिरमौर ने आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस दल को पझौता घाटी को  भेजा।  6 मई 1943 को यह दल राजगढ़ पहुंचा। कुछ आंदोलनकारियों को राजगढ़ के किले में कैद कर लिया। 7 मई 1943 को कोटी गांव के पास आंदोलन कारियों व पुलिस के बीच मुठभेड़ हो गई। इसमें आंदोलनकारियों ने पुलिस दल को बंदी बना लिया। आंदोलनकारियों ने मांग रखी कि राजगढ़ किले में बंद आंदोलन कारियों को छोडा जाए। तभी वे पुलिस दल को छोड़ेंगे।

महाराजा सिरमौर ने स्थिति को अनियंतित्र देखते हुए 12 मई 1943 को पूरे क्षेत्र में मार्शल लॉ लगाने के आदेश जारी कर दिए और समूची पझौता घाटी को सेना के अधीन लाया गया जिसकी कमान मेजर हीरा सिंह बाम को सौपी गर्इ्र । सेना  द्वारा  आंदोलनकारियों को 24 घंटे में आत्मसमर्पण करने को कहा गया। मगर आंदोलनकारियों ने साफ मना कर दिया। उसके बाद सेना ने क्षेत्र में लूटपात आरंभ कर दी। इसी दौरान  सेना द्वारा आन्दोलन के प्रणोता सूरत सिंह  के कटोगड़ा स्थित मकान को डॉईनामेट से उड़ा दिया गया जबकि  एक अन्य आन्दोलनकारी  कली राम के घर को आग लगा दी गई । इस सारे प्रकरण को देखते हुए आंदोलनकारियों ने अपने घर छोड़ दिए व ऊंची पहाडियों पर अपने कैंप बना दिए गए थे , ताकि वे सेना पर नजर रख सके। इसको देखते हुए सेना ने भी राजगढ़ के साथ ऊंची पहाड़ी सरोट नामक स्थान पर अपना कैंप बना लिया। 11 जून 1943 को निहत्थे लोगों का एक दल आंदोलनकारियों से मिलने जा रहा था। तो जिस समय कुफर घार के पास यह दल पहुंचा, तो सेना ने राजगढ़ के समीप सरोट के टीले से गोलियों की बौछार शुरू कर दी। रिकार्ड के अनुसार सेना द्वारा 1700 राउड़ गोलियां चलाई जिसमें कमना राम की मौके पर ही मौत हो गई। कुछ लोग घायल हो गए थे ।

दो मास के पश्चात सैनिक शासन और गोलीकांड के बाद सेना और पुलिस ने वैद्य सूरत सिंह सहित 69 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया । नाहन में एक ट्रिब्यूनल गठित कर आन्दोलनकारियों पर 14 महीने तक देशद्रोह के मुकदमें चलाए गए और कमेटी के नौ सदस्यों की संपति को कुर्क कर दिया गया। । अदालत के निर्णय  में 14 को बरी कर दिया गया । तीन को दो -दो साल ओर 52 आन्दोलनकारियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई । इस बीच कनिया राम, विशना राम, कलीराम, मोहीराम ने जेल में ही दम तोड़ दिया। उसके बाद सिरमौर न्याय सभा के नाम एक न्यायालय की स्थापना की गई। जिसमें इस मुकदमे को पुनः चलाया गया। जिसमे सजा को दस ओर पांच वर्ष में परिवर्तित किया गया । जिसमें  वैद्य सूरत सिंह, मिंया गुलाब सिंह, अमर सिंह, मदन सिंह , कलीकरा आदि को दस वर्ष की सजा सुना दी गई । 15 अगस्त 1947 को  देश के स्वतंत्र होने पर इस आन्दोलन से जुड़े काफी लोगों को रिहा कर दिया गया जबकि आन्दोलन के प्रमुख वैद्य सूरत सिंह, बस्तीराम पहाड़ी और चेत सिंह वर्मा को सबसे बाद में मार्च 1948 में रिहा किया गया ।

स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लोगों  को राष्ट्र भक्ति की प्रेरणा देता है और मातृभूमि की रक्षा के लिए  अपने प्राण न्यौछावर करने वााले महान सपूतों की कुर्बानियों एवं आदर्शों को अपने जीवन में अपनाना होगा ताकि देश की एकता एवं अखण्डता बनी रहे ।

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