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देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल में आज भी सदियों पुरानी परंपराओं को निभाया जाता है। ऐसी ही एक परंपरा राजधानी शिमला जिला के ऐतिहासिक धामी गांव में देखने को मिलती है। यहां दिवाली के अगले दिन पत्थरबाजी होती है। यह पत्थरबाजी तब तक चलती है, जब तक किसी का खून ना बहे। धामी गांव में मंगलवार को भी एक बार फिर सदियों पुरानी इसी परंपरा पत्थर मेला का आयोजन हुआ। यह आयोजन भले ही आज के विज्ञान और तकनीक के युग में अजीब लगे, लेकिन स्थानीय लोगों की आस्था, परंपरा और विश्वास आज भी इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।
दिवाली के अगले दिन निभाई जाती है परंपरा
हर साल की तरह इस बार भी दिवाली के दूसरे दिन दो समुदायों के लोग एक.दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं, जब तक किसी एक व्यक्ति का खून न निकल जाए। इस बार भी यह परंपरा पूरी श्रद्धा और निष्ठा से निभाई गई। जैसे ही पूर्व एसएचओ सुभाष के हाथ में पत्थर लगा और खून बहा, वैसे ही उसी खून से मां भद्रकाली के चबूतरे पर तिलक कर परंपरा को संपन्न किया गया।
धामी के स्थानीय इतिहास और जनश्रुतियों के अनुसार इस प्रथा की जड़ें रानी की सती होने की घटना से जुड़ी हुई हैं, जो नर बलि की प्रथा को समाप्त करना चाहती थीं। कहा जाता है कि मां भद्रकाली को खुश करने के लिए पहले नर बलि दी जाती थी। राजमाता बनीं रानी ने इसका विरोध किया और नर बलि की जगह भैंस की बलि देने का सुझाव दिया, जिसे कुछ समय के लिए अपनाया भी गया।
लेकिन बाद में आपदाओं और शाही परिवार पर आई मुसीबतों के कारण पुनः नर बलि की मांग उठी। इस बीच राजमाता ने नर बलि के स्थान पर एक सांकेतिक बलिदान का सुझाव दिया, जिसमें पत्थरबाजी के माध्यम से किसी एक व्यक्ति का रक्त निकाल कर उसे मां को अर्पित किया जाए।
कैसे होता है आयोजन
धामी का यह अनोखा मेला चौराज गांव में स्थित सती स्मारक के पास आयोजित होता है। मेले की शुरुआत राज परिवार के नरसिंह की पूजा से होती है। इसके बाद तुनड़ू, जठौती और कटेड़ू परिवारों की टोली तथा दूसरी ओर से जमोगी खानदान के लोग मैदान के दो सिरों से एक.दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं। यह लगभग 20 से 25 मिनट तक चलता है और जब किसी एक व्यक्ति का खून निकलता है, तो वह मां भद्रकाली के चबूतरे पर तिलक करने के लिए उपयोग होता है। इसी के साथ इस मेले का समापन हो जाता है।
धामी में इस मेले को सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक समझौते और ऐतिहासिक परंपरा का रूप भी दिया गया है। इसमें केवल निश्चित वंशों के लोग ही भाग लेते हैं, जबकि अन्य लोग केवल दर्शक बनकर मेले का आनंद लेते हैं।
चोटें, लेकिन शिकायत नहीं
इस बार भी पत्थरबाजी में कुछ लोग मामूली रूप से घायल हुए। पूर्व एसएचओ सुभाष को हाथ में पत्थर लगा, जिससे खून निकल आया। पर इस पर किसी ने ऐतराज नहीं जताया, क्योंकि लोगों के लिए यह परंपरा का हिस्सा है और आस्था का विषय भी।
आज जबकि देश अंतरिक्ष में नए कीर्तिमान रच रहा है, वहीं हिमाचल जैसे परंपरागत राज्यों में लोक आस्थाओं का गहरा प्रभाव अब भी कायम है। धामी का यह पत्थर मेला बताता है कि परंपरा और आधुनिकता एक साथ कैसे चल सकती है। यह आयोजन हिमाचल की सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक धरोहर का एक अनूठा उदाहरण है, जिसे देखने देश.विदेश से लोग हर साल आते हैं।