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भारत माता की पथरीली सरहदों और बर्फीली चोटियों पर हर दिन अनगिनत जवान अपने कर्तव्यों की वेदी पर प्राणों की आहुति देते हैं, परंतु वीरगति का वह परम सौभाग्य हर किसी के हिस्से नहीं आता। तिरंगे में लिपटकर घर लौटना और मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना केवल उन्हीं पुण्यात्माओं को नसीब होता है, जिनके सीने में देशभक्ति की ज्वाला आखिरी सांस तक धधकती रहती है। यह केवल एक मृत्यु नहीं, बल्कि अमरता का वह द्वार है जहाँ एक सैनिक काल की सीमाओं को लांघकर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज हो जाता है।
वीर प्रसूता भूमि सिरमौर का गौरव देवभूमि हिमाचल प्रदेश की मिट्टी का कण-कण वीरता की कहानियों से अभिसिंचित है। विशेषकर सिरमौर का आंचल ऐसे ही जांबाजों के रक्त से सींचा गया है, जिन्होंने देश की आन-बान और शान के लिए कभी अपने कदम पीछे नहीं हटाए। इसी पावन धरती के एक गौरवशाली सपूत थे शहीद ग्रेनेडियर वीरेंद्र सिंह। उनका जीवन और उनका बलिदान केवल एक सैनिक की कहानी नहीं है, बल्कि यह अदम्य साहस, कठोर कर्तव्यनिष्ठा और अटूट धैर्य की एक ऐसी जीवंत मिसाल है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मशाल का काम करेगी।
इतिहास गवाह है कि महान नायकों का निर्माण महलों में नहीं, बल्कि उन साधारण घरों में होता है जहाँ संस्कारों की नींव मजबूत होती है। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के पांवटा साहिब उपमंडल का एक छोटा सा गाँव कोलर, 16 मई 1980 को एक ऐसी ही महान विभूति का साक्षी बना। पिता बाबूराम, जो बिजली विभाग में लाइनमैन के रूप में सेवा दे रहे थे, और ममतामयी माता लीला देवी के घर वीरेंद्र सिंह का जन्म हुआ। एक साधारण परिवार में जन्मे इस बालक के भीतर असाधारण राष्ट्रभक्ति के बीज बचपन से ही अंकुरित होने लगे थे।
संस्कारों से सजी एक अनुशासित शुरुआत
वीरेंद्र सिंह का बचपन अन्य बच्चों से भिन्न था। वे केवल खेलकूद में ही निपुण नहीं थे, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी अत्यंत मेधावी थे। उनके स्वभाव में एक विशेष गंभीरता और अनुशासन था, जो अक्सर सैन्य अधिकारियों की पहचान होती है। उनकी आँखों में केवल एक ही सपना पलता था—अपने माता-पिता का मस्तक गर्व से ऊँचा करना और भारत माता के लिए कुछ ऐसा कर गुजरना कि उनका नाम इतिहास के पन्नों में सदैव के लिए अमर हो जाए। यही वह जुनून था, जिसने उन्हें कभी आराम से बैठने नहीं दिया और उनके संकल्पों को फौलादी बना दिया।
शिक्षा से सेवा तक का साहसी मार्ग
वह दौर जब अक्सर युवा दसवीं की पढ़ाई के बाद अपने भविष्य की दिशा को लेकर असमंजस और उलझनों में होते हैं, वीरेंद्र सिंह का लक्ष्य हिमालय की चोटियों की तरह स्पष्ट था। उन्होंने राष्ट्र की उस चुनौतीपूर्ण पुकार को सुना, जिसे सुनने का साहस केवल विरले ही कर पाते हैं। उन्होंने उस कठिन और काँटों भरी डगर को चुना, जहाँ केवल वीर ही अपने कदम रखते हैं। उनकी प्राथमिकता सुख-सुविधाओं वाला जीवन नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा थी।
अगस्त 2000: एक रक्षक का जन्म
अगस्त 2000 का वह महीना वीरेंद्र सिंह के जीवन का सबसे ऐतिहासिक पल बनकर आया, जब उन्होंने भारतीय सेना की प्रतिष्ठित ‘ग्रेनेडियर्स’ रेजिमेंट की वर्दी धारण की। एक साधारण छात्र का रातों-रात राष्ट्र के सजग रक्षक में बदल जाना, उनके भीतर धड़कते राष्ट्रवाद की उस प्रज्वलित ज्वाला का जीवंत प्रमाण था। वर्दी पहनते ही सिरमौर का यह बेटा अब केवल एक परिवार का सदस्य नहीं रहा था, बल्कि वह देश की करोड़ों धड़कनों का रखवाला बन चुका था। उनके इस कदम ने कोलर गाँव की मिट्टी को गौरवान्वित कर दिया और ‘अमरता’ की ओर उनका पहला साहसी कदम पड़ा।
प्रेम, परिवार और कर्तव्य का संगम: ग्रेनेडियर वीरेंद्र सिंह के जीवन का कोमल पक्ष
शौर्य और बलिदान की कठोर राह पर चलने वाले एक सैनिक के हृदय में भी प्रेम और ममता का एक अथाह समंदर होता है। वीरेंद्र सिंह के जीवन में अनुशासन और राष्ट्रभक्ति की गर्जना के बीच एक सुखद और मधुर मोड़ तब आया, जब 15 जनवरी 2004 को वे गीता देवी के साथ परिणय सूत्र में बंधे। यह विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं था, बल्कि एक फौजी के अडिग संकल्प और एक अर्धांगिनी के उस अटूट धैर्य का पवित्र संगम था, जो सीमा पर खड़े पति की सलामती की प्रार्थनाओं के साथ अपना जीवन जीती है। शादी के कुछ समय बाद, वीरेंद्र सिंह के जीवन में वह सबसे यादगार दिन आया जिसने उन्हें पूर्णता प्रदान की। 18 मई 2006 को उनके आंगन में दो जुड़वा बेटों की किलकारियां गूंजीं। उन नन्ही जानों के आने से वीरेंद्र सिंह के भीतर का पिता जाग उठा। उन मासूम चेहरों ने उनकी दुनिया को खुशियों के रंगों से भर दिया। बच्चों की उन नन्ही खुशियों ने मातृभूमि के भविष्य को सुरक्षित रखने के उनके जज्बे को और भी अधिक गहरा कर दिया। यद्यपि उनका हृदय अपने नन्हें पुत्रों और पत्नी के लिए स्नेह से भरा था, लेकिन उनके मन के किसी कोने में यह बोध सदैव जीवित था कि उनकी पहली और सर्वोच्च प्राथमिकता हमेशा ‘राष्ट्र’ ही रहेगा। वे जानते थे कि उन मासूमों की हंसी तभी सुरक्षित रह सकती है जब देश की सरहदें महफूज हों।
ऑपरेशन रक्षक: बारामुला की वह जांबाज भिड़ंत
वर्ष 2006 में जब जम्मू-कश्मीर आतंकवाद की भीषण आग में झुलस रहा था, तब वीरेंद्र सिंह की बटालियन बारामुला के संवेदनशील ’39-आरआर’ सेक्टर में तैनात थी। 8 दिसंबर 2006 का वह दिन इतिहास के पन्नों में उनके शौर्य के नाम दर्ज होने वाला था। ‘ऑपरेशन रक्षक’ के तहत तलाशी अभियान चल रहा था। स्थानीय सरपंच को साथ लेकर भारतीय सेना की टुकड़ी संदिग्ध घरों की चेकिंग कर रही थी। सरपंच टुकड़ी में सबसे आगे थे और उनके ठीक पीछे वीरेंद्र सिंह पूरी टीम का नेतृत्व कर रहे थे। एक घर की तलाशी के दौरान कमरे में मौजूद एक अलमारी को जैसे ही खोला गया, उसके पीछे एक गुप्त सुरंग का पता चला जहां आतंकी छिपा बैठा था।
अचानक आतंकी ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। पहली गोली वहां मौजूद सरपंच को लगी। जैसे ही सरपंच घायल होकर गिरने लगे, उन्होंने वीरेंद्र सिंह को पकड़ लिया। ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में भी वीरेंद्र सिंह विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपनी पोजीशन संभाली और आमने-सामने की मुठभेड़ में आतंकी पर फायरिंग शुरू कर दी। इसी गोलाबारी के दौरान एक गोली वीरेंद्र सिंह की बाईं बाजू में लगी और दूसरी उनके गले को भेद गई। लगभग एक घंटे तक चली इस भीषण मुठभेड़ के कारण साथी टीम उन्हें तुरंत अस्पताल नहीं ले जा सकी। गले में लगी गोली और अत्यधिक रक्तस्राव के बावजूद यह वीर सैनिक डटा रहा और अंततः मातृभूमि की गोद में अपनी अंतिम सांस ली।
अंतिम विदाई: जब कोलर की मिट्टी ने अपने नायक को चूमा
जैसे ही ग्रेनेडियर वीरेंद्र सिंह की शहादत का समाचार कोलर गांव पहुंचा, वहां की फिजाओं में एक भारी सन्नाटा पसर गया। माता-पिता और पत्नी गीता देवी के लिए यह खबर किसी वज्रपात से कम नहीं थी; वह घर जो कल तक खुशियों से चहक रहा था, क्षण भर में शोक के सागर में डूब गया। जब वीर सपूत का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर अपने पैतृक आंगन पहुंचा, तो ‘वीरेंद्र सिंह अमर रहें’ के गगनभेदी नारों ने आसमान को कपा दिया।
उस दिन सबसे हृदय विदारक दृश्य वह था, जब मात्र पांच महीने के दो मासूम जुड़वा बच्चे अपने पिता की अंतिम विदाई के साक्षी बने। वे बालक इस बात से अनजान थे कि उनके पिता अब मिट्टी से उठकर राष्ट्र के नायक बन चुके हैं। उन मासूमों की खामोश निगाहें जैसे देश से कह रही थीं कि उनके पिता ने भारत मां की रक्षा के लिए अपना ‘आज’ और अपने बच्चों का ‘कल’ दोनों दान कर दिया है। पूरा इलाका गमगीन था, पर हर आंख में इस महान बलिदान के लिए एक गर्व भरा सम्मान था।
अग्निपरीक्षा और स्वाभिमान: एक ‘वीर नारी’ का विजय पथ
शहादत के बाद का सफर पत्नी गीता देवी के लिए किसी कठिन अग्निपरीक्षा से कम नहीं था, किंतु उन्होंने हार मानने के बजाय एक अकेले योद्धा की तरह जीवन की चुनौतियों का सामना किया। पति के बलिदान के सात साल बाद उन्हें शिक्षा विभाग में क्लर्क के पद पर नियुक्ति मिली। इस लंबी प्रतीक्षा और संघर्ष के बीच उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि पिता का साया छिन जाने की कमी कभी बच्चों के भविष्य के आड़े न आए।
आज उनके दोनों जुड़वा बेटे अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं, जो गीता देवी के वर्षों के अटूट धैर्य और परवरिश की सबसे बड़ी जीत है। कोलर गांव की हर गली आज भी उस वीर सपूत की गवाही देती है, जिसने यह सिद्ध कर दिया कि जब एक बेटा मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करता है, तो वह केवल एक परिवार की संपत्ति नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र का गौरव बन जाता है। शहीद ग्रेनेडियर वीरेंद्र सिंह का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में सदैव जीवित रहेगा और उनकी प्रेरणा आने वाली पीढ़ियों के दिलों में देशभक्ति की लौ जलाती रहेगी।
शहीद ग्रेनेडियर वीरेंद्र सिंह आज हमारे बीच भौतिक रूप से भले ही न हों, लेकिन उनकी वीरता की गूंज सिरमौर की पहाड़ियों और कोलर की मिट्टी में आज भी जीवित है। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि सैनिक कभी मरते नहीं, वे बस अमर हो जाते हैं।
शहीद ग्रेनेडियर वीरेंद्र सिंह को हमारा शत-शत नमन, जय हिंद!











