स्कूल बस हादसा , तीखी टिप्पणी – आँसुयों के सैलाब में …संवेदनाओं के पनघट पर… पनिहारों के मेले

( धनेश गौतम ) देव भूमि की बहुत बड़ी त्रासदी । देव धरती में आंगन सुने हुए। हर आशियानो में गूँजने बाली किलकारियां खामोश हुई। जिगर के टुकड़े बिखर गए। हर मां का कलेजा फट गया। तिनका तिनका जोड़कर बुने घरोंदों में खिली कलियां फूल बनने से पहले ही सिर्फ मुरझाई नहीं बल्कि हमेशा हमेशा के लिए टूट गई विखर गई।

अब फूल खिलने से पहले ही बग्गिया सुनी हो गई। हर मां की गोद में पला बचपन सपने बनकर टूट गए। जिस मां की लोरियां सुन सुन कर भी जो जिगर के टुकड़े सोते नहीं थे वे हमेशा की नींद पल भर में  सो गए। जिन खुशी की किलकारियों से हर सुवह आंगन गूंजता था वहां अब खामोशी के साथ मातम पसरा है।हर सुवह स्कूल भेजने की आदत व सांय का अपने लाडलों का बेसब्री से होने बाला इंतजार हमेशा हमेशा के लिए सताता रहेगा, जख्मों को हरा करता रहेगा।

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भूलने की लाख कोशिश के बावजूद तिल तिल रुलाएगा। जिन पिता के कंधों पर हाथ पकड़कर बाल नोचते नोचते बड़े होने की हसरतें पाली थी और चीख चीख कर पापा कहते थे और चुप रहने की नसीहत देकर भी खामोश नहीं होते थे पल भर में पिता के कंधों से सदा सदा के लिए उतर गए हैं और अब कभी नहीं कहोगे कि पापा घोड़ा बन जाओ। सुवह उठकर मां ने यह सोचकर टिफिन भरा था कि शाम घर आकर साथ में खिलाऊंगी। पापा को इंतजार था उस गाड़ी का कि उनका जीवन आएगा और गल्ले लग कर कहेगा  कि आज मेम ने मुझे प्यार किया,a b c d भी पढ़ाई और होमवर्क भी दिया।

उन्हें क्या मालूम था कि जिस दिल के टुकड़े का हर दिन उन्हें इंतजार होता है वह आखिरी पल है और सुबह सवेरे गई काल की बस कभी लौटकर नहीं आएगी बल्कि उनके आंगन को सुना करने गई है। सोचा था कि अच्छे स्कूल में पढ़कर बड़े इन्सान बन जाओगे और हमारा व देश का नाम ऊंचा करोगे लेकिन कहां था ऐसा मालूम कि जिसे देखकर बड़े सपने संजोये हैं वे उस व्यवस्था के शिकार बन जाएंगे जो हमेशा गूंगी, बहरी, अपाहिज व संवेदनहीन है  नूरपुर की बड़ी त्रासदी को देखकर, सुनकर व महसूस कर पत्थर दिल भी पसीज गए।

लेकिन हमारे प्रदेश व देश में एक बार फिर संवेदननाओं का दौर फिर इस कद्र चला कि मानो भविष्य के लिए पूरे देश ने इस हादसे से नसीहत ली हो और आगे कभी ऐसे दिल दहलाने बाली घटनाएं नहीं होगी। संवेदनाओं की एक आदत बन गई है यह सोचकर कि हमारा फर्ज है।शोक सभाओं का आयोजन होता है दो मिनट का मौन रखा जाता है और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता कि इस त्रासदी का कारण क्या था। इस सिलसिले को रोकने के उपाए क्या है।

कितने हादसे होते हैं और ब्यान आते हैं जांच होगी। दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।चंद रुपयों को देकर जख्मो पर मरहम पट्टी लगाई जाती हैं लेकिन कभी भी उन कारणों को तलाशा नहीं जाता जिनके कारण यह सब बेमौत संसार को देखने व जानने से पहले ही मौत की गहरी नींद सुला दिए जाते हैं। हर दिन मौत का तांडव होता है और आँसुयों का सैलाब बहता है और मानों कि आँसुयों के इस पनघट पर संवेदनाओं के मेले लग गए हो। पूरे प्रदेश से संवेदनाओं की झड़ी लग जाती है लेकिन कभी भी ब्यवस्था को सुधारा नहीं जाता।

हैरान हूं मैं इस सरकारी तंत्र से कि हर वर्ष लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं मीटिंग करवाकर, सेमिनार करवा कर, ट्रेनिंग कार्यक्रम करवा कर कि इस तरह के हादसों को रोका जा सके लेकिन धरातल की सच्चाई कुछ और ही है। आपदाओं को रोकने के उपाए सिर्फ चाय समोसे तक ही सिमट कर रह जाते हैं जमीनी हकीकत कुछ और ही है। लोक का निर्माण विभाग बड़े साहबों की सेवा में व्यस्त है, मंत्रियों व विधायको की कोठियों को सजाने में मशगूल है ऐसे में हम इस विभाग से सुरक्षा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।

विसियों एनजीओ, संस्थाएं भी जागरूकता अभियान के नाम पर ढिढोरा पीट पीट कर थकती नहीं लेकिन अंत में संवेदना देने के अलावा और कुछ नहीं बचता। अब हम यूं कहें कि यहां आँसुयों का सैलाब एक पनघट है और इस पनघट में संवेदना देने बाले पनिहारे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन फिर भी हम उम्मीद के साथ जी रहे हैं, आगे बढ़ रहें हैं कि कभी न कभी तो सिस्टम सुधरेगा और वोह दिन भी आएगा जब इस तरह की घटनाओं पर 100 फीसदी अंकुश लगेगा।

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